बहुत समय पहले की बात है, जब भारत पर मुगलों का शासन था, राजस्थान के पहाड़ी इलाकों में एक छोटा-सा राज्य था जिसे प्रतापगढ़ कहा जाता था। प्रतापगढ़ का शासक राजा वीर प्रताप सिंह था, जो अपने साहस, वीरता और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा के लिए प्रसिद्ध था। राजा प्रताप सिंह एक न्यायप्रिय और धर्मपरायण शासक थे, जिन्होंने अपने राज्य को समृद्ध और सुरक्षित बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया।
प्रतापगढ़ की भूमि पहाड़ों और जंगलों से घिरी हुई थी, जो इसे प्राकृतिक रूप से सुरक्षित बनाती थी। राज्य की राजधानी एक विशाल किले में स्थित थी, जिसे “प्रतापगढ़ दुर्ग” कहा जाता था। यह किला इतना मजबूत था कि इसे अभेद्य माना जाता था। किले की दीवारें ऊँची और मोटी थीं, और वहाँ पर तैनात सैनिक हमेशा सतर्क रहते थे। प्रतापगढ़ के लोगों के लिए यह किला सिर्फ एक रक्षा कवच ही नहीं, बल्कि उनकी स्वतंत्रता और गौरव का प्रतीक भी था।
राजा प्रताप सिंह की शासन शैली बहुत ही प्रभावशाली थी। वह न केवल एक कुशल योद्धा थे, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी थे। उन्होंने अपने राज्य को आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उनकी प्रजा उन्हें बहुत प्यार करती थी, क्योंकि वह हमेशा उनके हितों का ध्यान रखते थे।
प्रतापगढ़ की समृद्धि और उसकी सेना की शक्ति ने जल्द ही मुगलों का ध्यान आकर्षित किया। उस समय मुगलों के सम्राट अकबर ने पूरे उत्तर भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। लेकिन राजस्थान की कुछ रियासतें, जैसे कि प्रतापगढ़, अभी भी स्वतंत्र थीं और मुगलों के अधीन नहीं आना चाहती थीं। अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए प्रतापगढ़ पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।
मुगलों की सेना बड़ी और शक्तिशाली थी। उन्होंने प्रतापगढ़ के किले को घेर लिया और इसे जीतने के लिए हर संभव प्रयास किया। लेकिन राजा प्रताप सिंह ने अपने वीर सैनिकों के साथ मिलकर मुगलों का डटकर मुकाबला किया। प्रतापगढ़ के सैनिकों की वीरता और साहस के सामने मुगल सेना को कई बार हार का सामना करना पड़ा।
प्रतापगढ़ दुर्ग की रक्षा करना आसान नहीं था। मुगलों की सेना बार-बार आक्रमण करती, लेकिन हर बार उन्हें हार का सामना करना पड़ता। राजा प्रताप सिंह खुद युद्ध के मैदान में उतरते और अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते। उनकी उपस्थिति से सैनिकों में एक नई ऊर्जा का संचार होता था, और वे दुश्मन के खिलाफ और भी जोश के साथ लड़ते थे।
प्रतापगढ़ के किले में कई महीनों तक युद्ध चला। मुगलों ने किले को चारों ओर से घेर लिया था, जिससे किले के अंदर भोजन और पानी की कमी हो गई थी। लेकिन प्रताप सिंह ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने सैनिकों को धैर्य और साहस बनाए रखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा, “यह किला हमारी स्वतंत्रता और स्वाभिमान का प्रतीक है। इसे किसी भी कीमत पर मुगलों के हाथों में नहीं जाने दिया जाएगा। हम अंतिम सांस तक लड़ेंगे और अपनी मातृभूमि की रक्षा करेंगे।”
युद्ध में हर रोज़ कई सैनिक शहीद हो रहे थे, और किले के अंदर हालात बिगड़ रहे थे। इसी बीच, एक गद्दार की साजिश ने प्रतापगढ़ के भविष्य को संकट में डाल दिया। मुगलों के साथ मिलकर किले के भीतर के एक प्रमुख मंत्री ने राजा प्रताप सिंह के खिलाफ षड्यंत्र रचा। उसने मुगलों को किले के गुप्त रास्तों की जानकारी दे दी, जिससे वे किले में आसानी से प्रवेश कर सकें।
राजा प्रताप सिंह को इस गद्दारी की भनक लग गई। उन्होंने तुरंत मंत्री को गिरफ्तार करवा लिया और उसे सार्वजनिक रूप से दंडित किया, ताकि कोई और इस तरह की गद्दारी करने का साहस न कर सके। लेकिन इससे पहले कि वह गद्दार को पूरी तरह से नियंत्रित कर पाते, मुगलों ने किले के गुप्त रास्तों का उपयोग करके एक बड़ा आक्रमण कर दिया।
यह आक्रमण प्रतापगढ़ के इतिहास में सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध था। मुगलों ने किले के अंदर घुसकर हमला किया, और प्रतापगढ़ की सेना ने अपनी पूरी ताकत के साथ उनका मुकाबला किया। राजा प्रताप सिंह खुद युद्ध के मैदान में उतरे और अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। उनके साहस और युद्ध कौशल ने मुगल सेना को हिलाकर रख दिया।
लेकिन मुगलों की सेना बहुत बड़ी थी और उनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने धीरे-धीरे किले पर कब्जा करना शुरू कर दिया। राजा प्रताप सिंह ने देखा कि किले की रक्षा अब और ज्यादा दिन तक नहीं की जा सकती। उन्होंने अपने सबसे विश्वसनीय सैनिकों को बुलाया और कहा, “हमने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया है। अब समय आ गया है कि हम अपने प्राणों की आहुति देकर भी इस भूमि की मर्यादा को बनाए रखें।”
राजा प्रताप सिंह ने अपने सैनिकों के साथ मिलकर अंतिम युद्ध लड़ा। वह जानते थे कि यह युद्ध उनकी अंतिम लड़ाई हो सकती है, लेकिन उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी वीरता और साहस का कोई मुकाबला नहीं था। उन्होंने मुगल सैनिकों का सामना किया और कई दुश्मनों को मार गिराया।
लेकिन युद्ध के दौरान, राजा प्रताप सिंह को एक तीर लगा और वह घायल हो गए। उन्होंने अपने प्राणों की चिंता किए बिना युद्ध जारी रखा। आखिरकार, जब वह पूरी तरह से घायल हो गए और उनका शरीर थक गया, तब उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनके बलिदान ने प्रतापगढ़ की भूमि को पवित्र कर दिया।
राजा प्रताप सिंह के बलिदान के बाद, मुगलों ने प्रतापगढ़ किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन राजा प्रताप सिंह की वीरता और उनके सैनिकों के बलिदान ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। प्रतापगढ़ की भूमि आज भी उन वीर योद्धाओं की गाथाएँ सुनाती है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
प्रतापगढ़ के लोगों ने कभी भी राजा प्रताप सिंह को नहीं भुलाया। उन्होंने हमेशा उनके बलिदान को याद रखा और उनकी वीरता की कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाते रहे। प्रतापगढ़ का किला आज भी उसी गौरव के साथ खड़ा है, जैसे वह उस समय था। यह किला न केवल एक ऐतिहासिक धरोहर है, बल्कि एक प्रतीक है उस साहस और बलिदान का, जिसने प्रतापगढ़ को इतिहास में अमर कर दिया।
यह कहानी हमें सिखाती है कि स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए हमें अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। राजा प्रताप सिंह का जीवन और उनका बलिदान हमें यह संदेश देता है कि सच्चे नेतृत्व का मतलब केवल ताकत और सत्ता नहीं होता, बल्कि अपने लोगों के प्रति निष्ठा, साहस और त्याग भी होता है। ऐसे ही महान नायकों के बलिदान की वजह से हमारी धरती पर आज भी वीरता और साहस की कहानियाँ जीवित हैं।
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